महीनों की बातचीत के बाद अमरीकी अधिकारियों और तालिबान प्रतिनिधियों ने शनिवार 29 फरवरी को शांति समझौते पर दस्तखत कर दिए हैं। पाकिस्तान के लाख ना चाहने के बावजूद इस मौके के लिए भारत को भी आमंत्रित किया गया था। समझौते पर हस्ताक्षर होने से पहले, अमरीका और अफगान सरकार द्वारा जारी एक संयुक्त बयान में कहा गया कि अमरीका और नाटो सेना अफगानिस्तान से 14 महीने के भीतर वापस चले जाएंगे। अमरीका 2001 से ही अफगानिस्तान में ताबिलान के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष कर रहा है। इससे पहले पिछले सप्ताह ही तालिबान ने अपने सभी लड़ाकों को लड़ाई रोकने और हमलों से बचने का आदेश दिया था।
संयुक्त बयान में कहा गया है कि अमरीका अफगानिस्तान में अपने सैन्य बलों की संख्या को 8,600 तक कम कर देगा और समझौते की घोषणा के 135 दिनों के भीतर समझौते में शामिल अन्य प्रतिबद्धताओं को भी लागू कर देगा। जिसमें तालिबान सदस्यों को 29 मई तक सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध सूची से हटाने और अफगान जेल से 5,000 तालिबान सदस्यों को रिहा करने का प्रस्ताव भी शामिल हैं। कतर की राजधानी दोहा में भारत और पाकिस्तान के अलावा कतर, तुर्की, इंडोनेशिया, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के नेता भी इस ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर के समय उपस्थित थे।
इस शांति समझौते के लिए काफी दिनों से प्रयास चल रहा था। अमरीका के साथ पाकिस्तान भी इस शांति समझौते के लिए प्रयासरत था। इस समझौते के लिए पाकिस्तान की आतुरता इसलिए भी अधिक थी कि वह किसी तरह से अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी खत्म करना चाहता है और इरान-भारत- अफगानिस्तान की मेल जोल को खत्म होते देखना चाहता है। पाकिस्तान को डर है कि अफगानिस्तान में भारत की मजबूत उपस्थिति से उसे खतरा है। खास कर ब्लूचिस्तान, फाटा और सीपैक के लिए पाकिस्तान को भारत की अफगानिस्तान में मौजूदगी से खतरा महसूस हो रहा था।
अफगान शांति वार्ता की जल्दबाजी में पाकिस्तान के अपने हित छिपे हुए हैं। वह एक तरफ जल्दी से जल्दी अमरीका के साथ पुराने संबंध को जीवित करना चाहता हैं वहीं दूसरी तरफ अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति को कम या खत्म करना चाहता है। राष्ट्रपति ट्रंप भी इस जल्दी में है कि अफगानिस्तान में फंसे अपने बाकी बचे 14,000 सैनिकों को निकाल लें और शांति के नाम पर अफगानिस्तान से वापस आ जाएं।
भारत को अलग थलग करने की कोशिश
अफगानिस्तान की किसी भी शांति प्रक्रिया में भारत को शामिल किए बिना कोई स्थाई हल नहीं हो सकता। यह जानते हुए भी पाकिस्तान इस बात की कोशिश कर रहा है कि भारत इस वार्ता में कोई पक्ष ना बने। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात ये है कि जिस देश के लिए शान्ति वार्ता हो रही है वो अफगानिस्तान सभी देशों में सबसे ज्यादा भरोसा भारत पर ही करता है। भारत ने अफगानिस्तान में कई विकास कार्य भी किये हैं।
पाकिस्तान पहले युद्ध में कमाया अब शांति प्रयास में भी कमाने की कोशिश
यह जानते हुए कि अमरीका बिना पाकिस्तान के सहयोग के अफगानिस्तान में लड़ाई नहीं जीत सकता, इसका फायदा पाकिस्तान के हुक्मरानों ने जमकर उठाया। 2002 से लेकर 2016 तक अमेरिका ने पाकिस्तान को तालिबान वाले इलाकों में आतंकवादियों के खिलाफ मिलिट्री ऑपरेशन के लिए 14 अरब डॉलर और अन्य मदों को मिलाकर 33 अरब डॉलर दिए। लेकिन ओबामा प्रशासन ने अंतिम दिनों में यह कहते हुए कि पाकिस्तान तालिबान के मामले में डबल क्रॉस कर रहा है उसको दी जाने वाली सहायता रोक दी थी।
अफगान में शांति वार्ता को लेकर पाकिस्तान काफी सक्रिय
अब जब से इमरान खान की सरकार आई तभी से अफगान में शांति वार्ता को लेकर पाकिस्तान काफी सक्रिय है। आर्थिक तंगी से जूझ रहे पाकिस्तान की नजर उस 800 मिलियन डॉलर की सहायता पर टिकी हुई है, जिसे राष्ट्रपति ट्रंप की अनुमति से जारी किया जा सकता है। इसलिए इमरान पूरी तरह ट्रंप को खुश करने में लगे है ताकि 800 मिलियन डॉलर की रकम पाकिस्तान को मिल सके। अभी तक ट्रंप भी यह कहते रहे हैं कि पाकिस्तान ने अमरीका को मूर्ख बना कर 33 अरब डॉलर ले लिया, जबकि वह तालिबानियों की ही मदद करता रहा है।
लेकिन इस जल्दबाजी में अफगानिस्तान में शांति की प्रक्रिया स्थाई नहीं दिख रही है। बल्कि इस बात का खतरा ज्यादा है कि अफगानिस्तान सें अमरीकी फौज निकलते ही वहां फिर से अराजकता और हिंसा का दौर शुरू हो जाएगा।
1996 में अफगानिस्तान में तालिबान शासन आया। पूरी तरह मुस्लिम कानूनों पर आधारित इस तालिबान शासन ने लोगों में तबाही ला दी। खास कर महिलाओं की स्थिति काफी नाजुक हो गई। शरिया कानून की आड़ में लोगों पर खूब जुल्म किए गए। तालिबान ने अपने नियंत्रण वाली जगहों पर आतंकवादी संगठन अलकायदा का ट्रैनिंग कैंप चलाना शुरू कर दिया। सितंबर 2001 में अलकायदा ने ही वर्ल्ड ट्रेड टावर पर विमान से हमला किया जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। उसके बाद अक्टूबर 2001 में ब्रिटेन और अमरीका की फौजों ने अफगानिस्तान में सैन्य ऑपरेशन कर तालिबानियों को खदेड़ना शुरू किया।
18 साल से चल रहा युद्ध
अफगान तालिबान और अमरीकी फौजों के बीच 18 साल से लगातार युद्ध चलने के बाद कतर की राजधानी दोहा में एक अनौपचारिक बैठक हुई। उसके पहले अफगान तालिबानों से बातचीत के लिए अधिकृत अमरीकी मध्यस्थ जलमे खलीलजाद काबुल में अन्य तालिबान प्रतिनिधियों से मिल कर बातचीत का माहौल बनाने में लगे रहे थे। खलीलजाद अमरीकी अफगान मूल के डिप्लोमेट हैं। अमरीकी सरकार की बातों से लगता है कि वह युद्ध से थक चुका है, इसलिए वह अफगानिस्तान से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहा है। इन 18 वर्षों में अमरीका युद्ध पर 975 अरब डॉलर खर्च कर चुका है और उसके 2,732 सैनिक मारे जा चुके हैं। ट्रंप ने अमरीकी अधिकारियों की भरी सभा में कहा- महान देश लंबे युद्ध नहीं किया करते’।
शांति प्रयास पर अभी भी अनिश्चितता
अमरीका-तालिबान समझौते के बावजूद अफगानिस्तान में शांति स्थापित हो जाएगी इसमें सबको संदेह है। तालिबान बटे हुए हैं, उनके कई गुट अलग अलग काम कर रहे हैं। तालिबान नेतृत्व के लिए यह आसान नहीं होगा कि अपने घटक और समर्थकों को एक दम आश्वस्त कर लें। तालिबान को अपने कमांडरों और सेनानियों को समझाना काफी कठिन होगा कि अमरीका को दुश्मन नंबर एक मान चुका आईएसआईएस एक दम से हथियार डाल दें।
अभी पिछले हफ्ते ही अफगानिस्तान के निवर्तमान राष्ट्रपति अशरफ गनी को 28 सितंबर के राष्ट्रपति चुनाव में विजेता घोषित किया गया, लेकिन तालिबान गनी की सरकार को मानने और उसके साथ बातचीत शुरू करने के लिए तैयार होंगे यह कहना काफी कठिन है। हालांकि दोनों पक्षों ने बातचीत के लिए सहमति व्यक्त की है।
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