किसी चीज की कीमत तब पता चलती है, जब वह बहुत मुश्किल से हासिल होती है। दुनिया के कई ऐसे देश हैं, जहां कोविड के बाद खाद्य संकट का डर बहुत तेजी से फैल रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वैसे पहले ही चेतावनी दे रखी है कि कोरोना वायरस के विश्वव्यापी फैलाव से पूरी दुनिया के सामने खाद्य संकट आने वाला है। यह संकट पिछले 50 साल में सबसे बड़ा संकट साबित हो सकता है।आकड़े बता रहे हैं कि अभी से खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में कठिनाई आने लगी है, जिसके कारण खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने लगी है।
कोरोना काल में भी लगभग 4 फीसदी की विकास दर हासिल करने का दावा करने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश चीन खाद्य पदार्थों की कीमत पर अंकुश नहीं लगा सका है। 10 अगस्त को जारी आकड़े के अनुसार पिछले साल के मुकाबले जुलाई में चीन में खाद्य पदार्थों कीमत 13 .2 फीसदी बढ़ गई है। अमेरिका में भी जून 2019 से लेकर जून 2020 तक खाद्य पदार्थों की महँगाई दर 4 .5 फीसदी बढ़ गई। आमतौर पर यूरोप इनफ्लेशन के बजाय डिफ्लेशन का शिकार रहता है। यानी मांग में कमी के कारण मूल्य या तो सालों साल स्थिर रहता है या फिर मूल्य में कमी ही आती है। लेकिन इस कोविड के कारण फल, दूध और सब्जियों के दाम पूरे यूरोप में बढ़ रहे हैं।
एशिया की बात करें तो पाकिस्तान में महँगाई चरम पर है। जुलाई में पाकिस्तान का फूड इनफ्लेशन 17 फीसदी पहुंच गया था। आटा, चीनी, तेल और सब्जियों की महँगाई से हर पाकिस्तानी परेशान है। 20 किलो आटा की बोरी पाकिस्तान में 1400 रुपये में बिक रही है। नेपाल भी एशिया में दूसरा ऐसा देश है जहां फूड इनफ्लेशन लगभग 10 फीसदी पहुंच चुका है। कोरोना के साथ ही कई अन्य वजहों से भी अफग़ानिस्तान में फूड इनफ्लेशन 17 फीसदी हो गया है। भारत के साथ बांग्लादेश और श्रीलंका दो और ऐसे देश हैं, जहां अभीतक इनफ्लेशन रेट काबू में है। भारत में रिजर्व बैंक के अनुमान के अनुसार ही पिछले तीन महीनों में इनफ्लेशन रेट 5 से 6 प्रतिशत के बीच रहा है।
यूएन जेनरल सेकेरेट्री एंटोनियो गुतरेस ने चेतावनी जारी करते हुए कहा है कि ग़रीबों के लिए बेहतर सामाजिक सुरक्षा के उपाय तत्काल करना बहुत जरूरी है अन्यथा कोरोना वायरस के कारण जो मंदी आने वाली है उससे पोषक तत्वों वाले खाद्य पदार्थों तक गरीबों की पहुंच नहीं हो पाएगी। यह मंदी लंबे समय तक चलने वाली है और इससे लाखों करोड़ों लोग प्रभावित होने वाले हैं।
अब जरा एक निगाह विश्व के खाद्यान्न उत्पादन पर डालते हैं। इस समय दुनिया में खाद्यान्न उत्पादन में चार देश सबसे आगे हैं। चीन, भारत, अमेरिका और ब्राजील। यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के अनुसार ब्राजील में इस साल 57 लाख मीट्रिक टन गेहूं की पैदावार हुई है। पिछले साल के मुकाबले 50 हजार टन ज्यादा। वहीं यूरोपियन यूनियन में शामिल 27 देशों व ब्रिटेन में कुल मिलाकर 1395 लाख मीट्रिक टन गेहूं की पैदावार हुई है। पिछले साल के मुकाबले 154 लाख मीट्रिक टन कम। यहीं नहीं ब्रिटेन समेत सभी यूरोपीय देशों में कुल मिलाकर पिछले पांच साल में सबसे कम गेहूं की पैदावार हुई है। मोरक्को में पिछले साल से 33 प्रतिशत कम और रूस में भी एक प्रतिशत कम गेहूं की पैदावार हुई है।
यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के आकड़े के अनुसार 2020-21 में कुल गेहूं का उत्पादन 7684.9 लाख मीट्रिक टन रहने का अनुमान है। यह लगभग पिछले साल के उत्पादन के बराबर है। पिछले साल गेहूं का कुल उत्पादन 7643.2 लाख मीट्रिक टन था। यानी इस साल पिछले साल के मुकाबले मात्र 0.5 प्रतिशत अधिक गेहूं का उत्पादन होने का अनुमान है।
गेहूं ही नहीं, कई अन्य फसलें भी ऐसी हैं जिनके कम उत्पादन से आने वाले दिनों में न सिर्फ महँगाई बढ़ सकती है, बल्कि एक तरह से अव्यवस्था मचने की आशंका जताई जा रही है। पाकिस्तान और मैक्सिको में कपास का उत्पादन गिरने की आशंका है तो कनाडा में मक्के की पैदावार में पिछले साल के मुकाबले 9 प्रतिशत की गिरावट देखी जा रही है। श्रीलंका में इस साल 44 लाख मीट्रिक टन धान की पैदावार होने की संभावना है जो पिछले साल के मुकाबले 4 प्रतिशत कम है। कनाडा में रेपसीड ऑयल बीज का उत्पादन भी पिछले साल के मुकाबले 4 प्रतिशत कम रहने की संभावना है। लाॅकडाउन के कारण सबसे बुरा प्रभाव फल और सब्जियों के उत्पादन पर भी हुआ है। लाखों टन सब्जियां सड़ गईं या पशु-पक्षियों को खिला दिया गया।
अब यह देखना है कि खाद्यान्न का वितरण विश्व में कैसे होता है। अभीतक जिन देशों में खाद्यान्न का उत्पादन उचित मात्रा में नहीं हो रहा था वे देश मुख्य रूप से आयात कर अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते थे। गेहूं ही ले लें। विश्व के 15 देश ऐेसे हैं जो कुल गेहूं निर्यात का 51 फीसदी हिस्सा खरीद लेते थे। ये हैं- इजिप्ट, इटली, फिलिपींस, इंडोनेशिया, ब्राजील, जापान, अल्जीरिया, नाइजीरिया, नीदरलैंड, स्पेन, साउथ कोरिया, बांग्लादेश, मोरक्को और मैक्सिको। इनको निर्यात करने वाले देश थे रूस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और फ्रांस।
अभीतक चल रही खाद्य व्यवस्था को कोरोना ने बिगाड़ कर रख दिया है। जो देश धड़ल्ले से खाद्यान्नों का निर्यात कर रहे थे, उन्होंने अपनी निर्यात नीति बदल दी है। अधिकतर ने खाद्यान्न के निर्यात पर रोक लगा दी है। खाद्यान्न निर्यात पर रोक का असर क्या हो सकता है- यह चीन की बेचैनी देखकर समझा जा सकता है। चीन हालांकि विश्व का दूसरा सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश है, फिर भी उसे अपने लोगों के पेट भरने के लिए अनाजों का आयात करना पड़ता है। चीन अपनी इस जरूरत के लिए बहुत हद तक रूस पर निर्भर था। जब रूस ने जुलाई तक खाद्यान्न के निर्यात पर रोक लगा दी तो चीन के हाथ-पांव फूल गए।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अखबार ग्लोबल टाइम्स ने अप्रैल में एक लेख लिखा। उसका टाइटल था ‘‘चाइना नीड्स टू प्रीपेयर फाॅर रिस्क फ्रॉम रसियन ग्रेन एक्सपोर्ट बैन।’ यानी चीन को रूस के निर्यात पर रोक से अपने यहां खाद्यान्न संकट की आशंका बनने लगी है। एक और उदाहरण। चीन अपनी कुल सोयाबीन खपत का 85 प्रतिशत आयात करता रहा है। यह आयात वह मुख्य रूस से रूस और बेलारूस से करता रहा है। इस समय दोनों देशों ने सोयाबीन के निर्यात पर रोक लगा दी है। अब चीन के पास ब्राजील और अमेरिका से सोयाबीन लेने का विकल्प रह गया है। क्या इस माहौल में चीन के लिए अमेरिका की सहायता प्राप्त करना आसान होगा। चीन में इस समय पोर्क मांस की कीमत लगभग दोगुनी हो गई है। वह भी इसी निर्यात पर रोक का नतीजा है।
अब भारत की स्थिति और मोदी सरकार के इंतजाम की चर्चा करते हैं। सबसे पहले हम इस बात पर विचार करते हैं कि यदि खाद्यान्न निर्यात पर बड़े देश रोक लगाते हैं तो भारत की स्थिति क्या होगी। एक आंकड़ा इसे समझने के लिए काफी है। जब भारत ने लाॅकडाउन की घोषणा मार्च में की थी तो उस समय भारत के सरकारी गोदामों में 738.5 लाख टन अन्न का भंडार था। हमारी कुल जरूरत से तीन गुना से भी अधिक। अब रबी की फसल कटकर मंडियों और गोदामों में आ चुकी है। 30 जून के आकड़े बताते हैं कि हमारे यहां 388 .7 लाख टन गेहूं का भंडारण हो चुका है। निजी व्यापारियों और स्टॉकिस्टों के अलावा। सामान्य और विशेष परिस्थितियों को मिलाकर देश में 74. 6 लाख मीट्रिक टन गेहूं के भंडारण को पर्याप्त माना गया है। हम कह सकते हैं कि किसानों के कारण देश में कम से कम दो साल के लिए गेहूं की व्यवस्था हमारे पास है।
इस साल मानूसन की बारिश अच्छी होने और किसानों को पीएम किसान से समय पर आर्थिक सहायता मिलने से खरीफ फसल यानी धान की बुआई भी समय पर होने की संभावना है। प्रधानमंत्री मोदी के पास खरीफ फसल के उत्पादन से संबंधित अच्छे अनुमान पहुंच चुके हैं, तभी तो हाल ही में बासमती और गैर बासमती के निर्यात को ढील देने का फैसला किया गया है। जब एक तरफ तमाम बड़े देश खाद्यान्न के निर्यात को लेकर असमंजस में हैं, वहां भारत का निर्यात खोलना अपनी अर्थव्यवस्था के प्रति एक बड़ा विश्वास का प्रदर्शन दिखाता है।
मोदी सरकार ने चीनी और दाल के बफर स्टाॅक को भी स्थिर और उपयुक्त स्तर पर रखने की विशेष तैयारी की है। 40 लाख टन चीनी का बफर स्टाॅक बनाया गया है और इसके लिए बाकायदा चीनी मिल मालिकों को 1,674 करोड़ रुपये की ढुलाई सब्सिडी दी गई है। प्याज और दाल के बफर स्टाॅक मेनटेन करने के लिए भी मोदी सरकार ने नेफेड को 1160 करोड़ रुपये दिए हैं। कम से कम 50 हजार टन प्याज और 5 .5 लाख टन तूर व मसूर दाल का बफर स्टाॅक बनाया जाएगा। सब्जी और दूध का उत्पादन हमारे देश में पहले से ही पर्याप्त हो रहा है। इसलिए इस बात की भारतीय को कोई चिंता नहीं है कि उनके सामने कोई खाद्यान्न संकट आएगा।
अपनी रीढ़ मजबूत कर भारत सामाजिक दायित्वों को पूरा करते हुए सबसे निचले तबके के लोगों को भी खाद्यान्न की पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने की स्थिति में पहुंच गया है। क्या दुनिया में कोई दूसरा ऐसा कोई उदाहरण हो सकता है कि कोई सरकार अपने 80 करोड़ नागरिकों के लिए निःशुल्क राशन उपलब्ध कराए। वह भी पहले की तरह केवल गेहूं और चावल नहीं, दाल भी और चना भी। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात कि एक-एक जरूरतमंद तक मदद। एक देश ओर एक राशनकार्ड की योजना लागू होने बाद लोगों के लिए कहीं भी और कभी भी राशन लेना जब आसान हो जाएगा तो फिर कोई परिवार भूखा नहीं रहेगा। विपदाएं आती हैं चली भी जाती हैं, लेकिन उन लोगों की कहानियां हमेशा याद रखी जाती हैं जो विपदा में मानवता का धर्म न भूले। नरेंद्र मोदी सरकार में कोई भी ऐसी सामाजिक उत्थान की योजना नहीं है जो गरीबों के आत्मसम्मान और उनके अधिकार में संवृद्धि न करता हो। कोरोना काल में भी!