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चीन से युद्ध के अलावा, आर्थिक मोर्चे पर भी नया फ्रंट जरूरी

क्या भारत को चीन से युद्ध के अलावा अलग आर्थिक मोर्चे पर कोई नया फ्रंट खोलना चाहिए, क्योंकि जितनी तेजी से विश्व के आर्थिक हालात बदल रहे हैं, उसमें चीन के साथ लंबे टकराव में भारत यदि उलझा रहा, तो आर्थिक क्षेत्र में जो अवसर बाकी देशों को मिल रहे हैं, उससे वंचित रह जाएगा।
अब यह स्पष्ट है कि चीन के साथ कोई भी प्रमुख देश व्यापारिक संबंध रखना नहीं चाहता। चाहे वह अमेरिका हो, ब्रिटेन हो, ऑस्ट्रेलिया हो, कनाडा हो या यूरोपीय यूनियन हो, सबके मन खट्टे हैं और सब चीन से छुटकारा पाना चाहते हैं। और यह भी तय है कि चीन जितना बड़ा बाजार और इंफ्रास्ट्रक्चर कोई देश दुनिया को दे सकता है तो वह भारत ही है। इसलिए भारत के लिए यही उपयुक्त समय है कि पूरी दुनिया को यह कहे कि चीन से अपनी फैक्ट्री या अपना बिजनेस समेटने वाले हमारे यहां आ सकते हैं।
बिना चीन के भी भारत कर सकता है आर्थिक तरक्की
चीन के साथ युद्ध की प्रबल आशंका के बीच कुछ हलकों से यह बात फैलाई जा रही है कि चीन का आर्थिक बाॅयकाट करना संभव नहीं है,  क्योंकि चीन पूरी दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग हब बन चुका है और हर उस देश को चीन से या तो कच्चा माल चाहिए या फिर सस्ता उत्पाद जो अपनी अर्थव्यवस्था को गति देना चाहते हैं।

यह देखते हुए कि लद्दाख में चीन की आक्रामकता के बाद पूरे देश में चीन के उत्पाद को लेकर एक रोष है और लोग बायकाॅट चीन का अभियान चला रहे हैं, चीन बहुत परेशान हो रहा है और बार बार यह कह रहा है कि चीन के खिलाफ भारत में राष्ट्रवाद की जो लहर उठ रही है वह अतंतः भारत को ही नुकसान पहुंचा रही है।  कुछ भारतीयों द्वारा भी यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि चीन के बिना भारत आर्थिक प्रगति नहीं कर सकता।


चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के कभी सलाहकार रहे सुधीन्द्र कुलकर्णाी का एक साक्षात्कार 24 जून को छापा है, जिसमें सुधीन्द्र कुलकर्णी को यह कहते हुए दिखाया गया है कि भारत ने ‘बायकाॅट चीन’ का मूर्खता भरा अभियान शुरू किया है। क्योंकि हमारे उपर यह दायित्व है कि विश्व के दो बड़े देश आपस में सहयोग कर  लोगों के लिए समृद्धि लाएं और विश्व में शांति स्थापित करें। लेकिन ना तो ग्लोबल टाइम्स ने और ना सुधींद्र कुलकर्णी ने यह समझाने की कोशिश की है कि भारत के 20 सैनिकों को धोखे से मारने वाला चीन इसके बाद भी भारत से ही आर्थिक सहयोग की अपेक्षा रखता है। कई काॅरपोरेट घरानों ने भी टोटल बाॅयकाॅट की काॅल को प्रायोगिक नहीं माना है। चीन के साथ कई परियोजनाओं में काम कर रहे लार्सन एंड टुर्बो के सीईओ एस एन सुब्रमनियम, ब्लू स्टार के थियागराजन भी उनमें हैं।

दुनिया भारत और चीन के बीच संभावित युद्ध की परिणती देखने के बाद कोई फैसला नहीं करेगी, क्योंकि कोरोना के थमने के बाद पूरे विश्व  में यह होड़ मचेगी कि कौन कितनी जल्दी अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में सफल होता है।  विश्व की तमाम कंपनियां फैसला कर रही है और अपनी-अपनी प्रोडक्शन यूनिट को तेजी से चीन से हटा भी रही हैं। लेकिन इन सब का फायदा भारत को अभी तक नाम मात्र का ही मिला है।

वियतनाम, थाईलैंड, मलेशिया और ताइवान सबसे अधिक फायदा उठा रहे हैं। सबसे दुख की बात यह है कि भारत अभी तक उन कंपनियों का डेस्टिनेशन नहीं बन पाया है जो चीन से उठकर, एशिया के देश में आ रही हैं। साउथ ईस्ट एशिया में भी म्यामार, फिलीपींस और बांग्लादेश यह अवसर उठाने में भारत से आगे हैं।
भारत को चीन के साथ किसी भी युद्ध से निबटने की तैयारी के साथ साथ नया फोकस एरिया इकोनामिक और बिजनेस एनवायरमेंट को ठीक करने का होना चाहिए। भारत के पास विशाल लैंड पुल है, इंफ्रास्ट्रक्चर है ओपन बाजार है,  सस्ती लेबर है और सबसे बड़ी बात एक स्थाई सरकार और स्थिर नीतियां हैं। भारत को तत्काल अपनी औद्योगिक नीति, आईटी व इलेक्ट्रॉनिक्स नीति और नई स्टार्टअप नीति में बदलाव करना चाहिए। खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में हम चीन को टक्कर दे सकते हैं।

उत्तर प्रदेश की पहल

उत्तर प्रदेश  की तरह हमें लगभग सभी राज्यों में पुरानी मशीनरी को लाने की अनुमति देनी चाहिए। उत्तर प्रदेश ने 40 प्रतिशत तक पुरानी मशीनरी को लाने की अनुमति दे दी है। यूपी की एक और पहल विदेशी कंपनियों को भारत लाने में सहायक हो सकती है और वह है श्रमिकों का कौशल मूल्यांकन के आधार पर रजिस्ट्रेशन । स्कील मैपिंग एक मेजर अट्रैक्शन हो सकता है। चीन की ही तरह भारत के राज्य अपने यहां प्रोडक्ट स्पेसिफिक सेक्टर बना सकते हैं। जैसा कि हमने आईटी के कई हब बनाए हैं।
विदेशी कंपनियों के लिए चीन का आकर्षण सिर्फ इतना ही था कि वहां उत्पादन लागत कम हैं और कच्चे माल की भरपूर उलब्धता है। लेकिन भारत में यह स्थिति नहीं है। कुछ सालों से भारत भी कई औदयोगिक उत्पादनों के लिए चीन से कच्चा माल खरीदता रहा है। चीन भारत में आने वाली कंपनियों के लिए यह समस्या पैदा कर सकता है कि वह कच्चे माल की सप्लाई ही ना करे। लेकिन भारत के पास यह क्षमता है कि वह कच्चे माल या कंपोनेंट की आपूर्ति घरेलू क्षमता में विस्तार कर बढ़ा दे। हालांकि इसमें समय लग सकता है, लेकिन कहीं न कहीं से आपको शुरूआत तो करनी ही पड़ेगी।
चीन बार बार यह कह रहा है कि भारत उससे प्रतिस्पर्धा कर नहीं सकता, क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुनी है। यह चीन द्वारा भारत को डराने का एक तरीका भी है। कई आर्थिक विशेषज्ञ यह बताते हैं कि चीन की जीडीपी एक बार नीचे  गई  नहीं कि फिर यह संभल नहीं पाएगी। क्योंकि जीडीपी की गणना आर्थिक गतिविधियों से ही होगी। जो इस समय ठप दिखाई दे रही है। फिर दुनिया को इस बात की भी आशंका है कि चीन की वाकई जीडीपी ग्रोथ रेट उतनी है की नहीं , जितनी दावा करता है।

दि फाइनेंसियल टाइम्स का कहना है कि चीन की जीडीपी उसके दावे से 12 प्रतिशत कम है। विशेषज्ञ यह भी कह रहे हैं कि यदि चीन की अर्थव्यवस्था में वृद्धि नहीं होती है, और भारत में 6 प्रतिशत की भी वृद्धि होती है तो भारत अगले दस साल में चीन की बराबरी पर आ जाएगा। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि चीन को लेकर विश्व बिरादरी का यह रूख बरकरार रहे और भारत में स्थिरता बनी रहे।
कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि एक बार हम चीन के साथ व्यापार करना बंद करने का निश्चय कर ले तो शुरू में जरूर जीवन स्तर में कमी और कुछ सुविधाओं में कटौती का सामना करेंगे, लेकिन फिर निश्चित रूप से हमारे पास अधिक नौकरियां होंगी और अधिक महत्वपूर्ण रूप से आशा और अवसर की भावना होगी। इसी तरह से चुनौतियों से देश टिक सकता है, क्योंकि यह हमें कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित करेगा और मेहनत से ही समृद्धि आएगी।

BIKRAM UPADHYAY

 

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